Sanjana Kirodiwal

साक़ीनामा – 24

Sakinama – 24

Sakinama
Sakinama by Sanjana Kirodiwal

Sakinama – 24

“9 बजे से पहले बस नहीं है क्या ?”,मैंने पूछा
“नहीं मैडम”,उसने कहा तो मैं और परेशान हो गयी ना मेरे पास ज्यादा पैसे थे और ना ही वहा मैं किसी को जानती थी। पहली बार मुझे अपने हालात पर रोना आया और मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। उस दिन पहली बार मैंने जाना कि इस दुनिया में इंसानियत आज भी ज़िंदा है। उसी दुकान पर खड़े एक लड़के ने मुझे रोते देखा तो कहने लगा,”मैडम आप रोईए मत ,

बस तो आपको नहीं मिलेगा और ऐसे बस से अकेले जाना सेफ भी नहीं रहेगा। एक काम करो आप रेलवे स्टेशन चले जाओ वहा से आपको जयपुर के लिए ट्रैन मिल जाएगा। कोई परेशानी भी नहीं होगी और आप आराम से घर भी पहुँच जाओगी”
“मुझे नहीं पता रेलवे स्टेशन कहा है ?”,मैंने मुश्किल से अपने आँसुओ को रोकते हुए कहा
“आप ऑटो से चले जाओ , 10-20 रूपये लगेंगे अगर आपके पास पैसे नहीं है तो मैं दे देता हूँ”,लड़के ने अपने जेब से पर्स निकालते हुए कहा


“नहीं,,,,,,,,,पैसे , पैसे नहीं चाहिए”,मैंने घबराकर कहा
“ठीक है कोई बात नहीं आप ऑटो से चले जाओ , 12 बजे ट्रैन आती है वहा”,लड़के ने कहा
मैं वहा से निकलकर सामने सड़क किनारे चली आयी। पास से गुजरते ऑटो को रोका और स्टेशन चलने का पूछा तो उसने 20 रूपये किराया बताया। मैं ऑटो में आ बैठी और स्टेशन चली आयी। इतने बड़े स्टेशन पर कहा जाना था कुछ समझ नहीं आ रहा था। पूछते पाछते मैं टिकट लेने पहुंची। काऊंटर वाले ने जयपुर के लिए जनरल का 160 रूपये का टिकट दिया मेरे पास अब सिर्फ 280 रूपये बचे थे।

मैं टिकट लेकर स्टेशन पर चली आयी। स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर चलते हुए नजर दुकान पर रखी पूरी सब्जी पर चली गयी। मुझे याद आया कि मैंने सुबह से कुछ खाया-पीया नहीं है लेकिन पैसे कम थे इसलिए मैं उन्हें देखते हुए आगे बढ़ गयी। मैं प्लेटफॉर्म के सबसे आखिर में चली आयी जहा ट्रेन के जनरल डिब्बे को रुकना था। वहा खड़े होकर मैं ट्रैन का इंतजार करने लगी मैंने अपना फोन देखा तो पाया कि वो चार्ज ना होने की वजह से बंद है मैंने उसे वापस बैग में रख लिया।


मुझे परेशान देखकर वहा पास ही खड़े ठेले वाले ने कहा,”मैडम कहा जाना है आपको ?”
मैंने पलटकर देखा वह एक ठेले वाला था जिसके पास खाने पीने का सामान था। मुझे ऐसे किसी अजनबी पर भरोसा नहीं करना चाहिए सोचकर मैंने उसकी बात का जवाब नही दिया और चुपचाप खड़ी रही। वह आदमी अपना ठेला सम्हाले वही खड़ा रहा। कुछ देर बाद मैंने पलटकर उसी से पूछा,”भैया ट्रैन कब आएगी ?”
“मैडम मैंने अभी आपसे वही तो पूछा कि आपको कहा जाना है ?”,आदमी ने कहा


“मुझे जयपुर राजस्थान जाना है”,मैंने कहा
“ट्रैन 12 बजे आएगी , 10 मिनिट और है लेकिन आप यहाँ क्यों खड़ी है यहाँ जनरल की बोगी रुकेगी”,आदमी ने कहा
“मेरे पास जनरल का ही टिकट है”,मैंने धीरे से कहा
“जनरल डिब्बों में तो बहुत भीड़ आती है आप खड़ी भी नहीं रह पायेगी , आप स्लीपर या फिर ac डिब्बे में चढ़ जाना वहा आपको कोई ना कोई सीट मिल जाएगी”,आदमी ने कहा


“लेकिन टीटी ने पूछा तो मैं क्या कहूँगी ?”,मैंने कहा
“दिवाली की वजह से ट्रैन भरी हुई आएगी , आप तो चढ़ जाना अगर टीटी मिले तो उसे कहना स्लीपर का टिकट बना दो,,,,,,,,,,,,,,,,वो 250-300 रूपये लेकर तुरंत टिकट बना देगा। आप लेडीज हो इसलिए कह रहा हूँ जनरल डिब्बे से मत जाना”,उसने हमदर्दी जताते हुए कहा
मेरे पास इतने ही पैसे थे कि मैं टीटी को दे सकू इसलिए मैंने खाना खाने का ख्याल दिमाग से निकाल दिया और बचे हुए पैसो को सम्हालकर रख लिया।

मेरे हाथ में पकड़ी महादेव की मूर्ति देखकर वह उसे देखने लगा। मैंने उस मूर्ति को उसके काउंटर पर रखा और कहा,”भैया मैं पानी पीकर आती हूँ”
“हाँ हाँ ठीक है”,उसने कहा तो मैं पानी की टंकी के पास चली आयी मैंने पानी पीया , मुंह धोया और वापस चली आयी। मैंने देखा वह आदमी हाथ जोड़कर महादेव की उस मूर्ति को प्रणाम कर रहा था।

मैंने उसे उठाकर वापस अपने हाथ में ले लिया तो उसने कहा,”बहुत सुन्दर है शंकर भगवान है न ये ?”
“जी आदिनाथ महादेव की है”,मैंने कहा
“कितने की है ?”,उसने ख़ुशी से अपनी आँखे चमकाते हुए पूछा  
“मुझे याद नहीं है मैंने कुछ साल पहले अपने शहर से ली थी”,मैंने मूर्ति को अपने हाथो से कसकर पकड़ते हुए कहा मुझे लगा उसकी नजर मेरी मूर्ति पर है।


“अच्छा , पर अच्छी है”,आदमी ने कहा और फिर अपने काम में लग गया
मैं वही खड़े ट्रैन का इंतजार करने लगी लेकिन ट्रैन आधे घंटे बाद आयी। जैसे ही ट्रैन आयी आदमी ने मुझे वही रुकने को कहा और खुद ट्रैन के पास जाकर डिब्बे देखने लगा जहा मुझे सीट मिल सके। वह थोड़ी देर में ही वापस आया और कहा,”मैडम आईये वो स्लीपर डिब्बा है आप उस में चढ़ जाओ , वहा सीट भी है अगर टीटी आये तो टिकट बनवा लेना वरना कोई बात नहीं,,,,,,,,,,,,,,टेंशन मत लीजिये आराम से जाईये”


अनजान शहर में एक अनजान आदमी मेरी इतनी मदद कर रहा था देखकर मेरी आँखों में नमी तैर गयी। मै ट्रैन की तरफ बढ़ गयी। मैंने दो कदम बढ़ाये और पलटकर वापस उस आदमी के सामने आकर महादेव की मूर्ति उसे देकर कहा,”ये आप रख लीजिये भैया”
“अरे नहीं नहीं मैडम”,उसने झिझकते हुए कहा


“रख लीजिये भैया , एक सही चीज एक सही इंसान के पास पहुँच ही जाती है”,मैंने नम आँखों से मुस्कुराते हुए कहा और वह मूर्ति उनके हाथो पर रख ट्रैन के डिब्बे में चढ़ गयी। जैसे ही ट्रैन चलने लगी मैंने देखा खिड़की के पास ट्रैन के साथ साथ चलते हुए वह आदमी कहने लगा,”मैडम टेंशन मत लीजियेगा , ध्यान से जाईयेगा महादेव आपके साथ है”
मैंने उसे देखकर हाथ हिला दिया लगा जैसे मेरी मदद करने महादेव खुद उसके रूप में आये हो और फिर किस ने सोचा था कि मेरे शहर में रहने वाले महादेव पालनपुर के किसी नरेंद्र गुप्ता जी के घर में जायेंगे।


किस्मत से मुझे खिड़की के पास वाली एक सीट मिल गयी जहा एक हस्बेंड वाइफ अपने 5 साल के बेटे के साथ बैठे थे और जयपुर जा रहे थे। मुझे अकेला देखकर उन्होंने मुझे बैठने को जगह दे दी। सामने सीट पर मेरे ही हम उम्र कुछ लड़के थे। मैंने खिड़की से अपना सर लगा लिया और आँखे मूंद ली। उस वक्त कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या सही था क्या गलत कुछ नहीं पता था बस जहन में चल रहा था मेरे साथ धोखा,,,,,,,,,,,,,,,,,जो मुझे मेरे अपनों ने दिया था।

दोपहर से शाम हो गयी लेकिन पानी के अलावा मेरे गले से कुछ नहीं उतरा। मुझे डर था अगर टीटी आ गया तो मैं उसे पैसे कहा से दूंगी इसलिए उन 280 रुपयों को मैंने सम्हालकर रखा था। पास बैठी लड़की ने जब अपना फोन चार्ज लगाया तो मुझे अपने फोन की याद आयी मैंने उनसे कुछ देर के लिए चार्जर मांगा और फोन ऑन किया। फोन ऑन किया तो उस पर जिया के कई मैसेज थे , मैं घर छोड़कर चली गयी हूँ ये बात घरवालों को पता चल चुकी थी और वो मेरे लिए परेशान हो रहे थे दूसरी तरफ राघव और उसके घरवाले भी,,,,,,,,,,,,,,,,,,

उन्हें बस डर था कि अगर मैंने खुदखुशी कर ली या मुझे कुछ हो गया तो वे लोग फंस जायेंगे।  राघव और उसके घरवालों का भी फोन आया लेकिन मैंने नहीं उठाया उस वक्त मैं किसी से बात करने की हालत में नहीं थी। इन सब से घबरा कर मैं रोने लगी। आस पास बैठे सब लोग मुझे देखने लगे। जिया ने मुझे घर आने को कहा , भैया , मम्मी सब मुझे घर आने को बोल रहे थे लेकिन मैं घर जाना नहीं चाहती थी।

मैं नहीं चाहती थी घरवालों को , रिश्तेदारों को इस बारे में पता चले और वो मेरा मजाक बनाये,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,राघव के कुछ मैसेज थे , कॉल भी आ रहा था लेकिन मैं बात नहीं कर पायी , मुझे दुःख बस इस बात का था कि मैं उसके सामने उस घर से आयी और उसने मुझे रोका तक नहीं,,,,,,,,,,,,,,,,वो चाहता तो सब ठीक हो सकता था लेकिन उसने चाहा ही नहीं। मुझे परेशान देखकर पास बैठी लड़की ने बहुत ही अपनेपन से मुझसे मेरी परेशानी पूछी

मैंने उसे थोड़ा बहुत बताया तो उसने कहा,”इतनी रात में घर कैसे जाओगी ? तुम चाहो तो मैं और मेरे हस्बेंड तुम्हे घर तक छोड़ आते है या फिर तुम्हारे लिए कैब बुक कर देते है तुम उस से चली जाओ”
ऐसे वक्त में मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती थी इसलिए मैंने जयपुर रहने वाली अपनी दोस्त से बात की। वहा बैठे सब लोगो ने मुझे परेशान देखा तो उनमे से एक ने कहा,”हम सब थोड़ा थोड़ा करके इन्हे कुछ पैसे दे देते है”


“नहीं पैसे नहीं चाहिए,,,,,,,,,,,,,पैसे नहीं चाहिए”,मैंने घबराकर कहा और मेरी आँखों से फिर आँसू बहने लगे।
“तुम प्लीज रो मत , तुम कुछ खा लो ,, मैं तुम्हे कुछ खाने को देती हूँ”,पास बैठी लड़की ने कहा
“नहीं मुझे नहीं खाना , मुझे भूख नहीं है”,मैंने मना करते हुए कहा
“प्लीज थोड़ा सा खा लो , अच्छा ज्यादा नहीं तो ये दो बिस्किट ही खा लो प्लीज”,लड़की ने अपनेपन से कहा  


मैंने एक बिस्किट लिया और खाने लगी। उसे खाते हुए महसूस हुआ कि मुझे बहुत भूख लगी है क्योकि पेट की भूख आपके दिल का दर्द कभी नहीं समझती। मेरी आँखों में आँसू भर आये।
रात 9 बजे ट्रैन जयपुर पहुंची। ट्रैन में मिले उस कपल ने मुझे स्टेशन से बाहर तक छोड़ा। मैं वहा से दोस्त के घर पहुंची और उस रात महसूस हुआ कि दोस्त हमारे जिंदगी में कितने मायने रखते है। वो मेरी बचपन की दोस्त थी। उसने मुझे सम्हाला , हिम्मत दी , खाना खिलाया और सुला दिया।

सुबह मैं देर तक सोते रही और जब उठी तो खुद को दोस्त के घर पाया। मैंने अपने अगल बगल देखा कोई नहीं था। वो चेहरा जिसे देखकर मेरी सुबहा होती थी वो आज वहा नहीं था। मेरा चेहरा उदासी से घिर गया और आँखों में आँसू भर आये।
दोपहर बाद मैं अपने शहर लौट आयी। भैया मुझे घर लेकर आये थे। मैं घर की तरफ कदम बढ़ाने से डर रही थी। कैसे सामना करुँगी घरवालों का ? समाज का ? रिश्तेदारों का ?

मैं जैसे ही घर में आयी मम्मी मुझे देखते ही आँसू बहाने लगी। मुझे इस हाल में देखकर वो भी हैरान थी। मैं अपने कमरे में चली आयी। मम्मी भी आकर बैठ गयी और कहा,”तुमने ऐसा क्यों किया ? तुम वहा से ऐसे क्यों चली आयी ? हम में से किसी को कुछ क्यों नहीं कहा ?”
मैं बस ख़ामोशी से उनकी बाते सुनते रही और मेरी आँखों से आँसू बहते रहे उस वक्त मेरे पास किसी के सवाल का कोई जवाब नहीं था। हाँ मैंने एक गलत कदम उठाया था उस घर से अकेले चले आने का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

लेकिन मैं अपने परिवार , रिश्तेदार और समाज को कैसे समझाती कि वो घर कभी मेरा था ही नहीं , उस घर ने , उस शहर ने मुझे कभी अपनाया ही नहीं।

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 संजना किरोड़ीवाल

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